
कोरेगांव -भीमा मामले के बाद पूरे देश में अर्बन नक्सल यानी शहरी माओवाद चर्चा में आ गया। कुछ लोगो ने कहा कि शहरी माओवादियों को कड़ी सजा दी जाए । जबकि लोगों के एक समूह ने इस बात पर जोर दिया कि शहरी माओवादियों जैसी कोई चीज है ही नहीं। जो भी कोई मोदी, भाजपा और संघ परिवार के खिलाफ बोलता हैं, उसे ‘शहरी माओवादी’ का ठप्पा लगाकर चुप करा दिया जाता हैं। ये दोनों परस्पर विरोधीप्रचार आम आदमी को भ्रमित कर देते हैं और वास्तविक स्थिति जानने में असमर्थ कर देते हैं। माओवादियों द्वारा लिखे गए दस्तावेजों के अवलोकन से शहरी माओवादियों की भयावहता, उनके अस्तित्व और उनके काम का पता चलता हैं। यह लेख आम लोगों को माओवाद और शहरी माओवादियों के बारें में सच्चाई बताने का एक छोटा सा प्रयास हैं।
माओवादी हिंसा की ख़बरें हमेशा सुर्ख़ियों में रहती हैं। सुरक्षा बलों पर हमले और आम नागरिकों की नृशंस हत्या के पीछे माओवादिओं का निश्चित उद्देश्य क्या हैं ? लोग इस बात को समझ ही नहीं पाते कि माओवादी आखिर क्या हासिल करना चाहते हैं। उनकी मंशा समझने के लिए खुद माओवादियों द्वारा लिखे गए दस्तावेजों को ध्यान से पढ़ना जरुरी हैं।
‘स्ट्रेटजी एंड टैक्टिक्स ऑफ इंडियन रिवोल्यूशन ‘ ये माओवादियों द्वारा लिखा गया सबसे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज हैं। एक अन्य दस्तावेज जो शहरी क्षेत्र में काम करने के लिए विस्तृत मार्गदर्शन प्रदान करता हैं वह हैं ‘शहरी परिप्रेक्ष्य’। ये दोनों दस्तावेज शीर्ष माओवादी नेतृत्त्व ने लिखे हैं और उनका संघठन इन दस्तावेजों में लिखी बातों के अनुसार काम करता हैं। आखिर माओवादी संघठन क्या हासिल करना चाहता हैं? उनका उद्देश्य क्या हैं? यह सब उनकी पुस्तक ‘स्ट्रेटजी एंड टैक्टिक्स ऑफ इंडियन रिवोल्यूशन’ में बहुत स्पष्ट रूप से लिखा गया हैं। माओवादी लिखते हैं “हमारा उद्देश्य सशस्त्र युद्ध के माध्यम से भारत की राजनितिक सत्ता पर कब्ज़ा करना हैं, युद्ध से ही इस समस्या का समाधान करना हैं। माओवादी संगठन का मुख्य कार्य भारतीय सेना, पुलिस और सम्पूर्ण नौकरशाही व्यवस्था को युद्ध द्वारा नष्ट करना हैं ”
माओवादियों ने भारत के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी हैं इस बात का अब जराभि संदेह नहीं है। अब यह स्पष्ट हो गया हैं कि माओवादी भारतीय संविधान को स्वीकार नहीं करते हैं और इस सभी संवैधानिक ढांचे को नष्ट करके भारत में उनका हिंसक तानाशाही शासन स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं।
माओवादी अपने लक्ष्य को कैसे हासिल करेंगे, इसके बारे में वह उसी दस्तावेज में आगे लिखते हैं कि युद्ध के माध्यम से भारत की राजनितिक सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए पहला कदम माओवादी सेना का निर्माण करना है।
इसके लिए सुदूर जंगली इलाकों में ‘सुरक्षित माओवादी जोन’ बनाकर माओवादी सेना को तैयार किया जाना चाहिए। बस्तर-गढ़चिरोली ( दंडकारण्य जोन) बालाघाट-मंडला (एम एम सी जोन) और झारखण्ड में सुरक्षित माओवादी जोन बनाकर माओवादियों ने उन इलाकों में हजारों की संख्या में माओवादी सेना खड़ी कर ली है। माओवादी आगे कहते हैं कि एक बार जब ऐसे सुरक्षित अड्डे और सेनाएं बन जाएंगी, तो हमें धीरे-धीरे ग्रामीण इलाकों पर कब्जा करने और अंत में शहरों को घेरने और शहरों पर कब्जा करने की रणनीति पर काम करना चाहिए।
ऐसी काफी घटनाएं हैं जो उनकी रणनीति को साबित करने के लिए पर्याप्त हैं।
– ६ फरवरी २००४ की रात को सैकड़ों माओवादियों ने उड़ीसा राज्य के जिला मुख्यालय,कोरापुट शहर पर हमला कर दिया। माओवादियों ने करीब छह घंटे तक शहर को घेरे रखा। माओवादियों ने शहर के पांच पुलिस स्टेशनों, जिला आर्मोरी,जेल और पुलिस अधीक्षक कार्यालय पर हमला किया । लगभग पचास करोड़ रुपये के हथियार लूट लिए।
– १६ फरवरी २००८, नयागढ़ जिले का शहर, ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से बमुश्किल सौ किलोमीटर दूर, रात १०-११ बजे के आसपास सैकड़ों हथियारबंद माओवादी पुरुष और महिलाएं अलग – अलग वाहनों में शहर में आये और पुलिस प्रशिक्षण केंद्र, शस्त्रागार और पुलिस स्टेशन पर हमला किया। इस हमले में १४ पुलिसकर्मी मारे गए और लगभग १२०० बंदूके और एक लाख कारतूस लूट लिए गए।
अब तक पाठक यह समझ चुके होंगे कि माओवादियों की कार्यप्रणाली दूरदराज के इलाकों में सुरक्षित अड्डे बनाना और फिर सेना खड़ी कर शहरों पर हमला करना हैं।
शहरी माओवादी
अब बात करते हैं शहरी माओवादियों की। माओवादी संगठन के दो हिस्से हैं। एक हिस्सा जंगल में हथियारबंद माओवादियों का हैं और दूसरा हिस्सा शहरों में गुप्तरूप से काम करने वाले शहरी माओवादियों का हैं।
जंगलों में माओवादी वर्दी पहनते हैं और खुलेआम बन्दूक लेकर चलते हैं, इसलिए उन्हें आसानी से पहचाना जा सकता हैं, लेकिन शहरी माओवादियों को पहचानना बहुत मुश्किल होता हैं। वे कभी खुद को माओवादी नहीं कहलाते और अलग – अलग संगठनों की आड़ में काम करते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता का मुखौटा पहनकर ये शहरी माओवादी अपने फ्रंट संगठन चलाते हैं और समाज में प्रतिष्ठित व बौद्धिक व्यक्ति के रूप में कार्य करते हैं।
शहरी माओवादियों का काम कई दशकों से चल रहा हैं। शहरी क्षेत्रों में कार्य पर उनका पहला प्रस्ताव १९७३ में आंध्र प्रदेश राज्य की माओवादी राज्य समिति द्वारा पारित किया गया था। समय के साथ, आंध्र प्रदेश के पीपल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) ने १९९५ में इस माओवादी शहरी कार्य संकल्प की समीक्षा और संशोधन किया। 2004 में सीपीआई (माओ) पार्टी की स्थापना के बाद इनके महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ में शहरी कार्यों को विशेष महत्त्व दिया गया हैं।
परिणामस्वरूप शहरी माओवादियों की गतिविधियां काफी हद तक बढ़ गयी हैं। यह समझना जरुरी हैं कि शहरी माओवादियों का ख़ास मकसद क्या हैं। ‘अर्बन पर्सपेक्टिव’ यह शहरी इलाकों में माओवादियों के काम का सबसे अहम दस्तावेज हैं। इसमें माओवादियों खुद साफ़ तौर पर लिखते हैं, “शहरी इलाकों में माओवादी काम को मजबूत करना बहुत जरुरी हैं क्योंकी शहरों पर कब्ज़ा करना माओवादी क्रांति का अंतिम लक्ष्य हैं।” वह आगे लिखते हैं, “शहरी माओवादियों को व्यापक जन संगठन बनाने होंगे और शहरों में बड़े पैमाने पर जन आंदोलन आयोजित करने होंगे। शहरी माओवादियों का यह सबसे अहम काम हैं। इस काम के साथ – साथ उन्होंने कैडर, नेता, हथियार, गोला-बारूद, दवाएँ, खाद्यान्न, विभिन्न उपकरण और अन्य सभी प्रकार की सहायता प्रदान करके माओवादी गोरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) की मदद करनी चाहिए। सशत्र माओवादी सेना (पीएलजीए) का कार्य सर्वोपरि हैं और उनका समर्थन एवं मदद करना शहरी माओवादियों का कार्य हैं।”
इस माओवादी दस्तावेज में शहरी नक्सलियों के उद्देश्यों को स्पष्ट करने के बाद लिखा गया हैं कि उन्हें शहरी क्षेत्रों में कहा और कैसे काम करना चाहिए। शहरी माओवादियों को किसानों, श्रमिकों, छात्रों, महिलाओं, माध्यम वर्ग, बुद्धिजीवियों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यांक समुदायों आदि सभी क्षेत्रों में काम करना चाहिए। संक्षेप में समाज के सभी वर्गों को प्रभावित करना चाहिए। माओवादियों ने आगे लिखा, “शहरी माओवादियों को पुलिस, अर्धसैनिक बलों और भारतीय सेना में अपनी घुसपैठ करनी चाहिए। शहरी क्षेत्रों में कार्यकर्ताओं को अपनी माओवादी पहचान को छिपाना चाहिए। माओवादी संगठनों के साथ अपने सबंध का कभी भी खुलासा नहीं करना चाहिए। बड़े पैमाने पर आंदोलन करने के बाद संगठनों के गठन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।” कुछ समय पहले दिल्ली में किसान आंदोलन, सीएए विरोधी आंदोलन, रोहित वेमुला आंदोलन, भीमा कोरेगांव आंदोलन में माओवादी पूरी तरह से शामिल थे।
शहरी माओवादियों का एक विशेष प्रकार का काम होता हैं जिसे वे ‘फ्रैक्शनल वर्क’ कहते हैं। यह काम बेहद गोपनीयता से किया जाता हैं और उतना खतरनाक भी हैं। फ्रैक्शनल वर्क एक सुनियोजित प्रक्रिया हैं। पहले एक माओवादी कार्यकर्ता किसी गैर-माओवादी संगठन में शामिल होता हैं, फिर वह कुछ अन्य माओवादी कार्यकर्ताओं को इस संगठन में शामिल कराता हैं। धीरे-धीरे ये सभी लोग उस गैर-माओवादी संगठन में पदाधिकारी बन जाते हैं और इस तरह उस गैर-माओवादी संगठन पर पूरा नियंत्रण कर लेते हैं और आगे ऐसे संगठन का इस्तेमाल माओवादी काम के लिए करते हैं। यह गुटबाजी का काम इतनी चतुराई और गुप्त रूप से किया जाता हैं की उस संगठन के सामान्य कार्यकर्ताओं को कभी पता ही नहीं चलता कि उनके संगठन पर माओवादियों ने कब्ज़ा कर लिया हैं और ये कार्यकर्ता स्वयं अप्रत्यक्ष रूप से माओवादी – आतंकवादी संगठन के काम में मदद कर रहे हैं। दस्तावेज अर्बन पर्सपेक्टिव में माओवादी आगें लिखते हैं, “अगर हम इस तरह से काम करते हैं, तो यह लम्बे समय के लिए फायदेमंद होगा। अगर हम अपने असली माओवादी चेहरे को छिपाने में सफल हो जाते हैं, तो सरकारी तंत्र हमें परेशान नहीं कर पायेगा, इसलिए शहरी क्षेत्रों में फ्रैक्शनल वर्क के रूप में कार्य करना सर्वोत्तम हैं ”
“फ्रॅक्शनल वर्क” की तरह काम करके इन शहरी माओवादियों ने देशभर के कई सामाजिक संगठनों पर कब्ज़ा कर लिया हैं और उनका इस्तेमाल अपने आतंकी संगठन के काम में कर रहे हैं। ऐसे घुसपैठ करने वाले माओवादियों के खिलाफ सबूत इकठ्ठा करना और उन्हें अदालती मामले में दोषी ठहरना एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य हैं।
जंगल और शहर में माओवादी संघटन की विकराल और भयानक प्रकृति का एहसास अब तक पाठकों को हो गया होगा। अगला सवाल यह हैं कि आम आदमी को इस आतंकी संगठन के खिलाफ क्या करना चाहिए? पुलिस और ख़ुफ़िया एजेंसियां अपना काम तो कर ही रही हैं लेकिन हमें याद रखना चाहिए की राष्ट्रीय सुरक्षा यह सुरक्षा बलों और आम नागरिक दोनो की संयुक्त जिम्मेदारी है। पूरे समाज को माओवादी-आतंकवादी संगठनों और उनके फ्रंट संगठनों के खिलाफ जन जागरण और जन आंदोलन करना चाहिए।
दुनिया भर के सभी आतंकवादी संगठनों की जड़ें अंततः समाज में ही हैं। ये आतंकवादी संगठन तब तक कार्य कर सकते हैं जब तक उन्हें समाज से समर्थन मिलता हैं, जैसे ही समाज उनके खिलाफ खड़ा होता हैं, ऐसे संगठनों का अस्तित्त्व समाप्त हो जाता हैं।
ऐसा लगता हैं की अब समय आ गया हैं की संपूर्ण भारतीय समाज राष्ट्रविरोधी एवं संविधान विरोधी हिंसक माओवादी संगठन के विरोध में बिगुल फूंके। यदि समाज इनके खिलाफ जन जागरण, जन संगठन और जन आंदोलन शुरू कर दे तो इस हिंसक माओवादी-आतंकवादी संगठन को ख़त्म होने में जराभी देर नहीं लगेगी।
लेखक- मिलिंद महाजन