कभी ख़तरनाक रहे लाल कॉरिडोर में माओवादियों का प्रभाव कम क्यों हो रहा है?

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Nमाओवादियों ने जिन इलाकों पर नियंत्रण किया, वहां उन्होंने किसी ठोस विकास के बजाय सैन्य तैयारी और वैचारिक ब्रेनवॉश को प्राथमिकता दी, जिसके चलते जिन समुदायों के हितैषी होने का वे दावा करते थे, वही सबसे अधिक पीड़ित हुए।

एक समय देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा माने जाने वाले माओवादी अब विशाल रेड कॉरिडोर से सिमटकर केवल 18 ज़िलों तक रह गए हैं। सुरक्षा विशेषज्ञों और संगठन से आत्मसमर्पण करने वाले सदस्यों के अनुसार, इसके पीछे कारण सिर्फ़ लक्षित विकास योजनाएं और लगातार चलाए गए उग्रवाद-विरोधी अभियान ही नहीं, बल्कि आंतरिक मतभेद, वैचारिक जड़ता, नेतृत्व संकट और जनसमर्थन से दूरी भी है।

 

2000 के दशक के अंत में अपने चरम पर रेड कॉरिडोर करीब 180 ज़िलों में फैला था, जो भारत की बड़ी आबादी को कवर करता था। लेकिन आधिकारिक आंकड़ों से गिरावट का पैमाना स्पष्ट है—2004-14 और 2014-23 के बीच वामपंथी उग्रवाद की घटनाओं में 50% से अधिक की कमी आई और मौतों में लगभग 70% गिरावट हुई। 2010 में नक्सल हिंसा की घटनाएं 1,936 थीं, जो 2024 में घटकर 374 रह गईं, जबकि मौतें 1,005 से घटकर 150 हो गईं।

छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के हिस्सों में फैला जंगलों का इलाका ‘दंडकारण्य’, जिसे माओवादी दो दशक से अधिक समय तक अपनी अस्थायी राजधानी मानते रहे, वहां सुरक्षा विशेषज्ञों ने उनके प्रभाव घटने के कुछ संभावित कारणों की पहचान की।

कई आत्मसमर्पण कर चुके नक्सली नेताओं ने बताया कि संगठन ने नियंत्रण वाले क्षेत्रों में विकास की बजाय सैन्य तैयारी और वैचारिक प्रचार पर ज़ोर दिया, जिससे स्थानीय समुदायों को भारी नुकसान हुआ।

हाल के वर्षों में संगठन कथित रूप से नेतृत्व संकट से जूझ रहा है। 2018 में मुप्पाला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति के इस्तीफ़े को एक निर्णायक मोड़ माना गया। उनके उत्तराधिकारी बसवा राजू ने “राजनीतिक संवाद और नागरिक जुड़ाव” की बजाय सैन्य हमलों पर अधिक ध्यान दिया, जिससे जनसमर्थन और घट गया।

मई 2025 में, छत्तीसगढ़ के नारायणपुर ज़िले के माड़ क्षेत्र में सुरक्षा बलों ने उन्हें मार गिराया। सीपीआई (माओवादी) की दंडकारण्य विशेष ज़ोनल समिति ने दावा किया कि राजू की मौत संगठन के अंदरूनी विश्वासघात का नतीजा थी, जिसमें उनकी सुरक्षा संभालने वाली पीपल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी की कंपनी नंबर 7 भी शामिल थी।

हालांकि आंतरिक मतभेद अहम रहे, लेकिन सुरक्षा बलों के अभियानों ने संगठन के पतन को तेज कर दिया। नारायणपुर में 21 दिन लंबे अभियान के दौरान माओवादियों के मारे जाने की घटना को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने नक्सलवाद खत्म करने की लड़ाई में ऐतिहासिक उपलब्धि बताया।

सुरक्षा एजेंसियों का मानना है कि अब संगठन की निर्णय लेने वाली सर्वोच्च इकाई—पोलित ब्यूरो—में सिर्फ चार सक्रिय सदस्य बचे हैं: मुप्पाला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति, मल्लोजुला वेंगुपाल राव उर्फ अभय, देव कुमार सिंह उर्फ देवजी और मिसिर बेसरा।

वैचारिक तौर पर, माओवादी अब युवाओं, किसानों और आदिवासियों के बीच अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं, क्योंकि वे शिक्षा, रोज़गार और मुख्यधारा में शामिल होने की ओर अधिक ध्यान दे रहे हैं। पिछले महीने ‘मन की बात’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने झारखंड के गुमला ज़िले के एक ओमप्रकाश साहू का ज़िक्र किया, जो कभी नक्सली गतिविधियों से प्रभावित था।

“…ओमप्रकाश साहू जी ने हिंसा का रास्ता छोड़ दिया। उन्होंने मछली पालन शुरू किया और फिर अपने जैसे कई दोस्तों को इसके लिए प्रेरित किया,” मोदी ने कहा। उन्होंने जोड़ा कि गुमला के बासिया ब्लॉक की 150 से अधिक परिवार अब मछली पालन में जुट गए हैं।

कई आत्मसमर्पण कर चुके नेता और सदस्य हिंसा छोड़ने की वकालत कर रहे हैं। पूर्व केंद्रीय समिति सदस्य गिनुगु नरसिम्हा रेड्डी, जिन्होंने दिसंबर 2017 में अपनी पत्नी के साथ आत्मसमर्पण किया, ने शांतिपूर्ण समाधान खोजने की बात कही और माओवादी गुटों में मतभेदों को उजागर किया। आत्मसमर्पण करने वालों के अनुसार, आंतरिक कलह के साथ-साथ संगठन का राजनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ना भी इसकी कमजोरी का बड़ा कारण है।